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________________ १५८] जीव और कर्म-विवारी। हाडका स्तंम जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक नम्न हो जाता है बहुत काल पयत उसका बल नहीं रहता है। इसीप्रकार अप्र. त्याख्यात मान कितने ही कारणकलापोंसे उदयको प्राप्त होता है तो भी नीतिका समय आ जानेपर वह मानको छोड़ देता है। भवातरफ नहीं जाता है। अप्रत्याख्यान सान-~-शरीर, धन, ऐश्वर्य, विद्या,कुल जातिमें स्वात्मवुद्धिरूप अभिमान नहीं रखता है. स्वात्मवुद्धिका रखना यह अलिमान शरीरादिको स्वात्मरूप मानना है। जिनको परपदार्थमें अभिमानके वश खात्मबोध हुआ है ऐसे अभिमानसे वे सम्यग्दर्शनको खो बैठते हैं परन्तु अप्रत्याख्यान मान इतनी तीव्रता नहीं रखता है, आत्मपरिणामोंमें इतनी फलुपिन वृत्ति नहीं करता है। अपने भावोंमे जडपदार्थों को आत्मरूप माननेका मिथ्याभिमान रखकर जडपदार्थों को अपनाता नहीं है। जडपदार्थोकी सुन्दरता या असुन्दरताको आत्माकी सुन्दरता या असुन्दरता नहीं मानता है। इस प्रकार अभिमान रखकर भी अप्रत्याख्यन मानकर्म आत्म... श्रद्धाको धारणकर परको पर और आत्माको खात्मरूप मानकर जीवोंकी दयाका भाव रखना है। अप्रत्याख्यान माया-जिलके उदयसे मेष (मैंढाके) श्रृंगके लमान मायाप परिणाम हो वह अप्रत्याख्यानमाया कषाय है। सेपका लीग स्वभावलेहो वक होता है। ऋनुना उसमें स्वभाव रूपले नही होती है तो भी प्रयत्न करनेपर वह मृनुभावको धारणकर सका है और विशेष प्रयत्न किया जाय तो वह वक्रमावको शीघ्र.
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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