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________________ जीव और कर्म पिचार। [.५० (उत्पाद) होता नहीं हैं मोर उत्पाद प्रत्यक्ष दीख रहा है तो फिर जीव-द्रव्यको सर्वथा नित्य किस प्रकार मान लिया जाय ? , -- क्रोध हर्प शोक संताप सुख-आनंद और उद्वेगादिक पर्याय अजीवको (शरीर) कह नहीं सके हैं, क्योंकि हर्प आदि गुण जीवके विभाव-परिणाम है। यदि अजीवके होते तो इन गुणोंमें झानका उद्भोस प्रतीत नहीं होता। शरीरमें ये गुण माने तो मृतक शरीरमें भी ये गुण व्यक होने चाहिये। अजीव-पदार्थमें ये उप. र्यक गुण माननेसे जोवाजीवका भेद लोप होगा इसलिये जीवको सर्वथा नित्य मानना अपरिणमनशील मानना प्रत्यक्ष प्रमाणसे विरुद्ध है। एक जीवमें प्रथम समयमें ज्ञान कम है। यालक प्रथम समय में कम मान रखता है अथवा बालरको स्वल्पज्ञान होता हैं परंतु घही यालक युवा होनेपर अतिशय प्रज्ञावान समस्त शास्त्रोंका वेत्ता हो जाता है । इस प्रकार एक जीवमें ज्ञानकी तर-तम अवस्था (न्यूनाधिकता) जोव-पदार्थको सर्वथा अपरिणामी माननेसे हो नहीं सकी है। - ज्ञान गुण आत्माका ही है जो आत्मामें ज्ञानको तरतमता कालके व्यवधानसे होती है वह शरीर आदि जड़ पदार्थकी नहीं है यद्यपि जीव सहित शरीरको ही जीव व्यवहारसे कहते हैं। जिसमें इन्द्रिय-आयु-श्वासोश्वास और काय ये चार बातें हों वही जीव है। मनुष्य शरीरमें उक्त-चारों,वाते दृष्टिगोचर हो रही है इसलिये मनुष्यका शरीर हो कथंचित मनुष्य जीव है। तो भी ज्ञानगुण
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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