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1 जीव और कर्म - विचार ।
हो रहा है। उसके द्वारा यह आत्मा नवीन नवीन कर्म-वर्गणाओंको ग्रहण करता है ।
यद्यपि सुक्ष्मरूप से विचार किया जाय तो बंध अनादि और सादिके भेद से दो प्रकार है । मेरु पर्वत आदि पदार्थोंमें अनादि वंध और सादि दोनों प्रकारका बंध हैं। मेरुका आकार और उसका वध अनादि हैं। इसलिये मेरु नित्य है । परंतु समय समय पर बहुत से पुद्गल स्कन्ध उस मेरुमें सर्वद्धिन होते हैं और नि
रित भी होते हैं इसलिये उसमें (मेरुमें) कथंचित् लादि बंध भी है । परंतु मेरुमें अनादि बंध की ही मुख्यता है । इस प्रकार संसारी जीव में भी एक अनादि बंध मुख्य माना है ।
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जिस प्रकार बीज और वृक्ष परंपरा कारणसे अनादि हैं । वृक्षसे वीज और बीज वृक्ष जिस प्रकार अनादि संतति रूप होने से आदि रहित - अनादि है । ऐसा नहीं है कि वीज प्रथम स्वयं सिद्ध हो और किसी एक खास व्यक्तिने उस वीजसे वृश्च बनाया हो ऐसा भी नहीं है कि वृक्ष प्रथम था उसके वाद उस वृक्षमें बीज लगे । इस प्रकार दोनों में से एक को प्रथम मान लिया जाय तो वस्तु की नियामकता किसी प्रकार बन नहीं सक्ती है । इसलिये युक्ति और बुद्धि विचारसे वस्तुका स्वरूप वीज वृक्ष दोनोंको संगति रूप अनादि ही मानना पड़ेगा और है भी ऐसा ही । इसी प्रकार जीव पदार्थ में अनादि बंध कर्म- संततिरूप है ।
वैभाविक शक्तिके द्वारा आत्मा राग-द्वेषरूप अपने भावोंसे परिणमन करता है। रागद्वे पसे आत्माके परिणामोंमें कषायका