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________________ - जीव सौर धर्म-विचार । [२६५ इस प्रकार १३ प्रतियों का क्षय अयोग फेवली करते हैं। इसप्रकार चोधे गुणसे बौदा गुणस्थान पर्यंत गुणस्थानोंमें यपाकमसे १४८ कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है । इसप्रकार समस्त कोपा समूल नाराफर मात्मा परमात्मा होता है। जिस प्रकार सावरके ऊपरका छिलफा दूर करने पर वह पुनः अंकुरित होने के लिये सर्वधा असमर्थ होनाता है ऐसे ही परमात्मा फौंका समूल नाश पर देनेसे जन्ममरण रहित होजाते है। इस प्रकार प्रत्येक मात्मा अपने आत्मीय शुद्ध पुरुषार्थसे परमात्म पद प्राप्त कर सकता है यही जन सिद्धान्तका उदार आशय है। समस्त फोसे रहित, निरंजन, निर्विकार, निदोप, अमृतीन, निगकुल, नि, निर्भय, अशरीर, निर्मल, संसारसे परातीत, जन्म. मरण रहित, शोक रहिन. जुगुप्पा दन, खेद स्वेदहित, रोगरहित क्षुधा रहित, विवामा रहित, अनंतशान अनंत दर्शन अनत सुख संपन्न, अनंत घीर्य सहित, आत्मा अविनाशी नित्य अष्ट गुण मंडिन होजाता है। फिर यह परमात्मा संसारमें लौटकर भो नहीं आ सकता है। हे मव्यात्मन् ! जो संसारके जन्म मरणके दुखोंसे सदाके लिए हटना चाहते हो तो कोका नाश करनेका उद्योग करो। फमके सिवाय अन्य कोई भी जीवका दुश्मन नहीं है, दुख्न प्रदान करने वाला नहीं हैं, जन्म मरणका प्रदान करनेवाला नहीं है, पशु पक्षी नरक आदि पर्यायमें वर्णनातीत वेदनाका देनेवाला नहीं है। जीवोंको जो फष्ट हो रहा है यह सर्व फर्म जनित है कर्म बडे
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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