________________
१०२] जीव गौर फर्म-विधार । 'आवरण करे-आत्मामें ज्ञान उत्पन्न नहीं होने देवे । जिस प्रकार एक मूर्तिपर परदा डाल रखा है उस परदेसे मूर्तिका ज्ञान नहीं होता है । मूनिके ज्ञान होने में बह परदा बाधक है। यह परदा अनेक प्रकारका है, एक परदा खूब मोटा और जघन है। 'लसमें छिद्र नहीं है । दूसरा पग्दा इससे कुछ पतला है तीसरा पादा पतला है, पतले परदेमें। मृतिका उदास होता है उससे विशेष मोटे परदे मूर्तिका उदास स्पष्ट नहीं होता है और मोटे परदेमें तो मूर्तिका ज्ञान सर्वथा होता ही नहीं है। ठीक इसी प्रकार कौमें (जो पुद्गल फार्मणवर्गणा स्वरूप है ) ऐसी विलक्षण -शक्तिका प्रकट होना जिससे उनकर्मों का आत्माके साथ सबंधित होने पर उन कर्मों के प्रभावसे आत्माम पदार्थोका परिज्ञान नहीं होता है और उन कर्मोंके क्षयोपशम या क्षयसे तत्काल ही शान होता है।
. . जैन शासन प्रत्येक पदार्थके परिज्ञानमें · उस उस कर्मके क्षयोपशमको प्रधान कारण मानता है बिना कोके क्षयोपशम या क्षयके पदाका परिज्ञान स्वेथा नहीं होता है। एक मनुष्यके नेत्र बिलकुल निर्षिकार हैं उनमें देखने की शक्ति है और बाहा आलोक मादिका निमित्त भी पूर्ण सहायक है परंतु कर्मोका क्षयोपशम नहीं है तो मनुष्यको पदार्थका परिज्ञान सर्वथा नहीं होगा और कोका क्षयोपशम होनेपर बाह्य नेत्रादिकोंका संयोग प्राप्त होनेपर पदार्थका परिज्ञान होता है। इसलिये पदार्थों के परिक्षानमें तत्ततत्तू कौका क्षयोपशम प्रधान कारण है। .