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जीव भार कम· विचार ।
[ १०१ की अपेक्षा रागादिक भाव आत्मामें उत्पन्न होते हैं परंतु रागादिक भाव गुणरूप होकर आत्मामें उत्पन्न होते हैं रागादिक मात्माके गुण हैं और आत्मा के माधारमें उत्पन्न होते हैं । ऐसा मानने से बहुत दूषण प्राप्त होते हैं ।
जिस प्रकार हलदो और चूनाके संयोग होने पर लालरंग उत्पन्न होता है उसी प्रकार विकारी आत्मामें पुलके संयोगले आत्माके विभावस्वरूप रागादिक भाव उत्पन्न हो सके हैं परंतु आत्मा के धर्म रागादिक नहीं है और रागादिक धर्म पुगलके, भी नहीं है किंतु दोनोंके संयोग से आत्मा के भावोंमें रागद्वेष ऐसी शक्ति हो गई है वहा - क्रोध-मान- माया लोभ रूप भेदोमें बट जाता है ।
इस प्रकार नवीन कर्मों को अनादिकालसे वाघता हुआ यह जीव संसार परिभ्रमण करता है कर्मोंमेंही चार भेद हो जाते हैं। प्रकृतिबंधका विशेष स्वरूप
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ज्ञानावरण १ दर्शनावरण २ वेदनीय ३ मोहनीय ४ मायु ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराय ८ ये आठ प्रकृतिकर्म के भेद हैं इन भेदों को मूल भेद कहते हैं उत्तरोत्तर भेद बहुत हैं, समस्त कर्मोंके मेद १४८ होते है तो भी उनके भेद प्रभेद, विशेष किये जांय तो कर्मो के अनत भेद होते हैं ।
ज्ञानावरण के ५ भेद है-मविज्ञानावरण- श्रुतज्ञानावरण- भवधिज्ञानावरण- मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानाबरण ।
ज्ञानावरण कर्म उसे कहते हैं कि जो कर्म आत्माके शानको