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________________ ११०] जीव और कर्म-विचार । भावोंमें रागद्वेष रूप परिणमन कराते हैं उस रागद्वेष युक भावोंसे मत या कायका व्यापार होता है और उससे नवीन झोका बंध होता है अथवा आत्माके भावोंमें रागद्वषो वश नवीन नवीन प्रकारकी इच्छामोंका उद्रम होता है उने,इच्छाओंकी प्रतिके लिये आत्माके प्रदेशोंमें सकंप अवस्था होती है उसके द्वारा भी नवीन कर्मोंका बंध होताहै। । । । । रागद्वेप ही मात्माके भावोंको बिकारी बनाते हैं। उनसे आत्माके भावोंमें विकार परिणमन क्रोध:मान-माया लोम कप परिणमन होता है इन विकारी भावोंसे भी नवीन मबंध होता हैं अथवा विकारी भावोंसे जो कर्म (शरीर और इन्द्रियों में ) में विकार होता है उसके साथ आत्माके प्रदेशोंमें विकार होता है इस प्रकार प्रदेशों में विकार (हलन चलन ) होनेसे नवीन फर्म. पंध होता है रागादिकोंमें कुछ झानांश है ऐसा प्रत्यक्ष सवको प्रतिमास होता है। इसलिये रागादिकोंको आत्मा ममें कहे या मात्माको उनका उत्पादक माने ? या आत्मामें उत्पन होते हैं ऐसा माने ? जो रागादिक भावोंको आत्माका धर्म माने तो सिद्ध परमात्मामें भी रागादिक धर्म होने चाहिये १. परंतु रागादिक आत्माके धर्म हो तो आत्माको मुक्त अवस्था कभी नहीं हो सकी है और न बद्ध अवस्था, ही होसक्ती है किंतु रागादिक भावोंका आत्मा उत्पादक है। आत्मा वैभाविक शक्ति द्वारा रागादिक भावोंका उत्पादक होता है । ऐसा नहीं है कि रागादिक भाव आत्मामें उत्पन्न होते हैं। उत्पादक दृष्टि 4: TH
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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