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जीव और कर्म-विवार। [६ मात्मामें और आत्माके भावोंमें ऐसा परिणमन पयों होता है। यदि इस प्रस्नपर विचार किया जाय तो आत्माकी वैमाविक शक्ति ही आत्माफा परिणमन कराने में मूल कारणभून है। जब तक बाब निमित्त (प्राबद्ध कर्मोका संस्कार) आत्माके साथ संवदित है तब तक पैमाविक शकि मात्माको विभावरूप परिः णमन कराता है फिर वही शक्ति स्वभावरूप परिणमत कराती है। परिणमन किया उस शक्केि द्वारा आत्मामें निरंतर होती रहती है। जिस प्रकार आत्मामें ज्ञानगुण है। दर्शन गुण है। सम्यकगुण है । सुखगुण हैं। अमूर्तत्वगुण है। अवगाहनत्वगुण है उसी प्रकार आत्मामें परिणमन क्रियाकी मूल उत्पादिका एक शक्ति (गुण) है। उस शक्केि द्वारा आत्मामें परिणमन किया निरंतर होती रहती है। __ यद्यपि अगुरुनघु नामका एक विशेष गुण समस्त द्रव्यमें रहता है और उसका फल द्रव्यों में उत्पाद व्ययरूप परिणमन कराता है दन्यके गुणोंमें उत्पाद व्ययरूप परिणमन कराता है यद्यपि गुणोंका नाश सर्वथा नहीं होता। और नवीन गण उत्पन्न नहीं होते हैं। गुणोंका छोडकर द्रव्य भी कोई चीज नहीं है तथापि गुणोंके अविमागी. प्रतिच्छेदोंमें जल कलोलके समान स्वभावरूप परिणमन अगुल्लघु कगता ही है। परंतु क्रियाबिभावं परिणमन आत्मामें वैमाविक शक्ति द्वारादो होती है। इसीलिये क्रियात्मक परिणमन ('विमाव परिणमन) का आत्मा हो उत्पादक है। आत्माकी वभाविक शक्ति ही आत्माके
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