________________
८ ]
जीव और कर्म विचार ।
काय द्वारा निरंतर संग्रहीत करता है। उनमें भिन्न भिन्न फी शक्ति आत्मप्रदेशोंके साथ संबंध होनेपरही होने लगती है । कमोंके संबंधका कारण
जीव अनादिकालले कर्मसे संबंधित है । उन कमौ के निमित्तसे जीवोंके भावों में विलक्षण परिणमन होता है । पूर्व संवद्धित कर्मोके निमित्तसे रागद्वेषरूप जीवोंकी नवीन नवीन उत्पन्न होती हैं उन इच्छाओं की पूर्ति के लिये जीर अपने मन बचन काय द्वारा आत्मप्रदेशों में परिस्पंद (एक प्रकारकी क्रिया सकंप अवस्था ) क्रिया करता है । उस क्रिया के निमित्तसे लोकाकाशमें भरे हुये पुद्गल प्रवयोंको ( कार्मण धर्मणाओं को ग्रहण कर लेता है ।
जिस प्रकार लोहा गरम होजानेपर पानीको खींच लेता है उसी प्रकार जीव कर्मोंको अपने मन बचन कायके द्वारा और अपने भावों द्वारा खींच लेता है ।
जिस प्रकार सूर्य की गर्मीको वनस्पति चारोंतरफले आत्मसात करती है। उसी प्रकार आत्मा भी रूपायोंके निमित्तसे वित्रोपचयको ग्रहण कर लेता है ।
प्राचीन कर्मोंके निमित्तले जिस प्रकार कर्मो के बंध करनेके भाव होते हैं उसी प्रकार नवीन वाह्य निमित्तों से भी जीवोंके भाव नवीन कर्मके कारण होते हैं ।
कर्मके संबंध होने में यद्यपि आत्मा ही उपादान है। आत्माके ही भाव कर्मोके संबंध कराने में मूल कारण होते हैं । तो भी
"
1
1