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________________ जीव और धर्म- विचार 1 [ ७ एक-स्वरूप ही प्राप्त हुआ है परंतु अपने अपने स्वभावसे अपनी अपनी प्रकृति (धर्म) से कटुक-मधुर-स्वट्टा स्वरूप प्रकट करता है । इसी प्रकार समस्त कमेर्गणायकों प्रकृति आठ प्रकारकी होती है । कर्मों को जैसी २ प्रकृति होती है, कर्मों का फल भी वैसा ही प्रकृति के अनुसार होता है । उस कर्मका आस्वाद वैसाही प्राप्त होता है । कर्मों की प्रकृतिके मूल आठ भेद हैं। जिस प्रकार अन्नको भक्षण करनेपर अनका परिणमन भिन्न २ 'प्रकारसे होता है । जो अन्न मुनके द्वारा वर्वण होकर खर-भागको प्राप्त होकर आमाशय में जानेके प्रथम हा उसके रस उपरस धातु- उपधातु, रक्त, माल, मेदा आदि अनेक विभागों में बिसत होता है । उसी प्रकार कामंणवर्गणाओं जो समय प्रद्धके द्वारा वित्रोपचयके द्वारा कर्मकर मासे सब घिन होते हैं। जीवके मन वचन काय द्वारा जो फर्मों का संबंध होना है । उसका खर भाग होता है । उसमें खर भागके अनेक विभाग होते हैं। 1 कर्मधर्मणायें एक प्रकारसे सर्वत्र लोकाकाशमें पूर्णरूपसे वाखच भरी हुई हैं । पुव्यकी जो सूक्ष्म सुदन अवस्था है ( जो अत्यंत सूक्ष्म अतन्द्रिय है ) उस अवस्थामें स्थित पुद्गल परमाणुओंके पिंड (विस्र पचय) में जीवोंके भावोंसे ऐसी एक विलक्षणशक्ति उत्पन्न होती है कि जिससे उनमें ज्ञानावरगादि कर्मप्रकृति अवस्था हो जाती है जैसे अन्नके पाककी रस उपरस रूप अग्रस्था 2111 पुलोंके प्रचयको जो जीव प्रतिसमय अपने मन बचन t
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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