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जीव और फर्म- विचार ।
पदार्थों में विपरीतता - कारण - विपर्यास, भेद- विपर्यास और
लक्षण विपर्यास से होती है । पदार्थोंमें जो विपरीतता दीख रही
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है या भिन्न भिन्न मत मतांतरोंकी कल्पना हो रही है उसका मूलकारण यह है कि पदार्थोंमें कारण विपर्यास समझ रक्खा है । भेद - विपर्यास और लक्षण ( स्वरूप ) विपर्यास इन विपरीत स्वरूपों का यथार्थ ज्ञान एकमात्र सर्वज्ञ को ही होता है । सर्वज्ञ प्रभुका ज्ञान सर्वव्यापी है और सर्व कालवर्ती अमूर्त पदार्थो को भी प्रत्यक्ष करने वाला है । छद्मस्थ जीवोंका ज्ञान अपरिपूर्ण ज्ञान है वह भी इन्द्रिय और मनके द्वारा होनेसे अमूर्तीक पदार्थों का ज्ञान नहीं करा सक्का ? एवं सर्वकाल और सर्वक्षेत्रवर्ती पदार्थीको ज्ञान नहीं करा सका इसलिये इन्द्रिय-जनित ज्ञानमें कारण विपर्यासनादि त्रिप र्यासता अवश्य ही होती है । इसीलिये छद्मस्थ जीवोंको जितना परिज्ञान होता है वे उस ज्ञानसे पदार्थ के सत्य स्वरूपको प्रकट नहीं कर सके हैं । द्रव्य मिथ्यात्वकी उत्पत्ति इसी कारण से होती हैं। द्रव्य मिथ्यात्व के नॉकर्म यहा हुडावसर्पिणी कालमें चढ़ते रहते हैं इसीसे इससमय द्रव्य- मिथ्यात्व की वृद्धि शघ्र शीघ्र हो रही है, यह सब हुडावसर्पिणी काल काही दुर्निवार प्रभाव है । हुंडा सर्विणी कालके सिवाय अन्य कालमें प्राय: एक जैनधर्मही रहता है द्रव्य - मिथ्यात्वका वाह्यस्वरूप सर्वथा प्रकट नहीं होता है इसीलिये जैनधर्मको शाश्वत धर्म, सनातन धर्म, अनादिनिधन धर्म, माना है । जैनधर्मकी आदि नहीं है । जैनधर्म का अंत नहीं है ।
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