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जीव और कर्म विचार |
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विदेहादि क्षेत्रों में एक मात्र जैनधर्म ही अनादिकाल से अविच्छिन्न रूपसे चला आरहा है और अनंतकाल पर्यंत इसी प्रकार खला जायगा | विदेहक्षेत्र में जैनधर्मके आयतन अनादिकाल से हैं और अनतकाल पर्यंत रहेगें, किसी कालमें इनका अभाव नहीं होगा | जैन- गुरु, जैन-धर्म, जेन चैत्यालय, जैन- चैत्य और जैनागमका प्रभाव सर्वकालमें वहापर प्रकाशमान बना रहता है । व की प्रजा सर्वकाल मे एकमात्र जैनधर्मका ही सेवन करतो है अन्य धर्म का स्वरूप वहावर सर्वथा प्रकट नहीं होता है ।
विदेहक्षेन में ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, देवी-देवताओंके आयतन वे उनके उपासक सर्वया उत्पन्न नहीं होते हैं । कुशासनों का आगम व उनके गुरु नहीं होते है ।
वस्तु की परिस्थितिका विचार करनेसे यह सबको सहजमें विदित होना कि संसारका मूल कारण एक मिथ्यात्व है और मोक्षका मूलकारण एक सम्यक्त्व है ।
सम्यक्त्व वस्तु सत्य स्वरूपका प्रकाश करता है और मिथ्यात्य वस्तुके असत्य स्वरूपका प्रकाश करता है । सत्य स्वरूपकी प्राप्ति होनेसे जीवोंको हेयोपादेयका सत्य सत्य परिक्षान होता है । पर वस्तुमें उदासीनता प्रकट होती है और आत्मवस्तुकी चाहना होती है । इस प्रकारकं परिज्ञान से सम्यग्दी जीव अपने वर्तमान स्वरूप को विवारता है और आत्मा के वास्तविक स्वरूप को भी विचारता है ।
शुद्ध आत्मा और अशुद्ध आत्मा इस प्रकार आत्मा के दो भेद