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नीव और कर्म-विधार। है। संसारी जीवोंकी अशुद्ध मात्मा होती है और मोक्षके जीवोंकी शुद्ध मात्मा होती है।
शुद्ध आत्मा समस्त फर्मोसे रहित होती है इसलिये वह अम्. तीक, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध-दर्शनमय, टंकोत्कीण ज्ञायक स्वभाव वाली है। अनंत सुख-संपन्न होती है, निईन्द्र होती है, उन्म मरण शोफ भय चिंता क्लश आदि उपद्रवोंसे रहित होती है, क्रोध-भान-माया लोभ, काम-धिकार और सब प्रकार की इच्छाओंसे रहित परमशांत, परम निभय,परम निराकुल, हाती है । शुद्ध आत्माके इन्द्रिय
और मन नहीं है। इसलिये शब्द, सश, रस, गंध आदि इन्द्रियों के विषयोंकी कामनासे रहित आत्मीक सुखमें मग्न होती है। __ संसारी आत्मा अशुद्ध आत्मा है, संसारी आत्माओंमें अशद्धता कोसे प्राप्त हुई है । कर्म अनादि हैं। आत्मा भी अनादि है। कोका संबंध संसारी अशुद्ध आत्माके साथ अनादिकालसे है। ___ असलमें संसारी अशुद्ध आत्मा स्वभावसे हो अशुद्ध है ऐसा नहीं है कि आत्मा प्रथम शुद्ध था फिर कोपाधि ले अशद्ध हो गया हो और न ऐसा भी है विशुद्ध अवस्थामें रहता हुआ यात्मा कर्मोपाधिसे अनेक प्रकार अशुद्ध दीखता हो। जिस प्रकार स्फटिक मणिके पीछे जैसे रंगका डाक (परदा ) लगा दिया जाय तो स्फटिक वैसा ही दीखने लगता है । स्फटिकमें अशुद्धता नहीं है संयोग से अशुद्धता प्रतीत होती हैं, ऐसेही जीवमें अशुद्धना नहीं है को। पाधिके संयोगसे अशुद्धता प्रतीत हो रही है।
ऐसा भी नहीं समझना चाहिये कि आत्मा अनादिकालसे