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________________ जीव और कर्म-विचार | [१६० तथा उत्तम सदावारकी क्रियायें संस्कार - फुल विशुद्धि - पिढशुद्धि आदि समस्त मोक्षमार्ग के उपयोगी कार्योंका लोप होजायगा दीक्षा शिक्षाका भी अभाव होगा कितने ही लोग स्नान करना - सफेदपोप रहना-सावू लगा-. कर उजले बाजले रहना यही ऊंचगोत्र ( अपने व्यापार कर्म से होता है) है ऐसा मानते हैं । परंतु जैनशासन में श्रीॠषभतीर्थंकरसे लेकर महावीर पर्यन्त २४ तीर्थंकरोंने ही आठ कर्म बतलाये हैं । सात कर्म किसीने नहीं बतलाये । न गोत्रका अभाव बतलाया प्रत्येक युगमें आठों कर्मो का उदय रहता है । इसलिये ऊपरी भवका या व्यापारके निमित्तसे ऊंचनीच गोत्र संज्ञा नहीं है । भरपेट मनमाने पाप करे और ऊपर सफेदपोष वने उनको ऊंच गोत्र नहीं माना है । क्तुि पूर्वभव के पुण्योदयसे इक्ष्वाकु आदि वंश में जन्म लेना सो ऊंच गोत्र है ऊं वगोत्रकी महिमा सबको प्रत्यक्ष है । इसलिये गोत्रकर्म भी प्रत्यक्ष हैं । अंतराय कर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको सब प्रकारको सामग्री मौजूद होने पर भो तथा सत्र प्रकारके साधन उपस्थित होनेपर जो भोगने नहीं देवे विघ्न कर देवे वह अन्तरायकर्म है । जिसप्रकार भंडारी राजाको आज्ञा प्राप्त करलेने पर भी कार्यमें नादिक कार्यमें ) विघ्न करता है । अथवा राजासे ऐसी आज्ञा प्राप्त करनेमें ही बाधा करता है उसीप्रकार अंतरायकर्म वाघक होता है । दानांतराय - दान देने योग्य अपने पास सामग्री धन संपत्ति
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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