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जीव और कर्म-विचार। शास्त्रीय आज्ञा वतलाई है। विजातीय विवाहसे उच्च गोत्रों हानि होती है।
इम्मी प्रकार विधवा विवाहसे उच्च गोत्रता नष्ट हो जाती है इसी प्रकार मद्य-माल मधुसेवी महावतकी शक्तिसे रहित नीच कुलके मनुप्यके हाथका भोजन पान करनेसे ऊच गोत्रकी हानि होती है। दस्साके साथ व्यवहार करनेसे ( जो दस्ता विधवा विवाहादि कारणोंसे जातिच्युत हैं ) भी जाति ज्युत न होता हैं। ऊंच गोत्रता नष्ट होती है।
जितने तीर्थंकर हुए विशुद्ध क्षत्रियकुलमें ही उत्पन्न हुए हैं।
वर्णशंकरता विधवा विवाह और छताछूतका लोप तीर्थंकर माता पिताके कुलमें नहीं था।
नुनिगण शूद्रके हाथका पानी पीनेशले श्रावकका भोजन ग्रहण नहीं करते हैं । इससे मालुम पड़ता है कि छूताछूतका लोप करना आगम विरुद्ध है। ऊंच गोत्रको हानि करनेवाला है। मुनिका स्पर्श नीच कुल मातंगके साथ हो जाय तो मुनिको स्नान (दंड स्नान ) करना पड़ता है और प्रायश्चित लेना पड़ता है। प्रतिमाका शद्र स्पर्श कर लेवे तो प्रतिमाको शुद्धि करानी पडती है इसलिये ऊंचगोत्रको हानि करनेवाला छूताछूतका लोप करना है।
नीचगोत्र-जिस पापके फलसे नीचकुल (महाव्रतके धारण करनेके अयोज्ञ ) में जन्म लेवे वह नीच गोत्र है।
गोत्रकर्म न माना जाय तो मोक्षमार्गका ही लोप होजायगा