SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव और कर्म-विचार। [१९५ कता है। ऊंच गोत्र प्राप्त क्येि विना मुनिव्रत ही नहीं होता है तो विशेष संयम किस प्रकार होसक्ता है ? जिलसे साक्षात मोक्षमार्गता व्यक्त होजाय ? इसलिये ऊवगोत्रका प्राप्त करलेना महान पुण्यका फल बतलाया है। केवल बाह्य स्नान शुद्धि या ऊपरकी सफाईको ही ऊब गोत्र नहीं कह सकते हैं या उत्तम व्यवहार करनेवाले वर्णशंकरको ऊंचगोत्र नहीं कहते हैं ऊचगोत्रका प्राप्त करलेना पूर्वभर के पुण्यकर्मका फल है जिस कुलमें रजशुद्धिवीर्यशुद्धि-आवरणशुद्धि और सदाचारशुद्धि और पिंडशुद्धि नियमितरूपसे वंशपरंपरागत चली आई है। जिस कुलमें घरेजा नहीं हुआ है जाति शंफरता नहीं हुई है और आचार निवार एवं खान पात नीवजाति भ्रष्ट तथा जातिच्युन (दशा आदि ) के साथ नहीं हुआ है वह कुल ऊंच गोत्र कहलाता है ऐसे कुलमें उत्पन्न हुए मनुष्य व्रत ( महाव्रत ) धारण कर सकते हैं। ऐसे मनुष्यों की ही पूर्वभवके पुण्योदयसे महाव्रत धारण करनेकी दृढ धारणा होती है परीक्षाके समय वे च्युत नहीं होते हैं। विचारों के रूप जार और श्रद्धासे मलिन नहीं होते हैं । भावोंकी दृढता प्रतिष्टा गोरव आदि के प्रलोभनसे सकंप नहीं होती है। जिसकी उत्पत्ति मलिन है उसकी भावोंकी परणति भी पतित रूप होती है । और जो नीच कुलमे उत्पन्न हुआ है उसके भावोंमें धर्मकी रम आदर्शताको ग्रहण करनेकी शक्ति नहीं होती है। इसीलिये शास्त्रोंमें विवाह शुद्ध कुल अपनी शुद्ध जातिमें बतलाया है। "अथ कन्या सजातीया विशुद्धकुलसंभवा" ऐसी
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy