________________
ति
१६४] जीव और कर्म-विवार । सको आनदित एवं आश्चर्य करनेवाला-पंचकल्याणक द्वारा देवोपुनीत वमत्कार सहित-तीन जगतके जीवोंको परम अभयदान देनेवाला धर्मचक्रको धारण करनेवाला तीर्थंकर परमदेव पदकी प्राप्ति हो यह तीर्थंकर नामकर्म है।
तीर्थकर पद सर्वोत्कृष्ट हैं सर्व जगत पूज्य है-निजगत मान्य है-तीन जगतके जीवोंको अभयदान देनेवाला है, समस्त जीवोंको सुख करनेवाला है । देवोंसे परमपूज्य है।
इस प्रकार नामकर्मके उदयसे जीवोंका अनेक प्रकारको अव. स्थाएं प्राप्त होता है जैसे वित्रकार अनेकप्रकारके चित्र बनाता है वैसे हो नामकर्मके उदयसे अनेकप्रकारके नर नारकी देवतियंच आदि अवस्थाको जीव प्राप्त होता है।
गोत्रकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको महावतके योग्य व महावत धारण करनेके अयोग्य ऊंच नीच गोत्र प्राप्त हो गोत्र है। जिसप्रकार कुम्हार छोटे बड़े वर्तन बनाता है वैसे ही गोत्रकर्म ऊ चनीव कुलमें जन्म प्राप्त कराता है। ऊंच गोत्रकर्म जिसके उदयसे मोक्षमार्ग धारण करने लायक गोत्र प्राप्त हो।
मोक्षमार्गका प्रगट करनेवाला एक गोत्रकर्म है, ऊबगोत्रकर्म महान पुण्यकर्मके फलसे ही प्राप्त होता है। जिस प्रकार संयमकी प्राप्तिके लिये मनुष्य पर्यायकी प्राप्ति जैनधर्मकी प्राप्ति और सर्व प्रकारकी निराकुलताकी आवश्यकता है अथवा आसन्नभव्यता और सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिकी जैसी आवश्यकता संयम धारण करनेके लिये नियामक है वैसे ही ऊवगोत्र प्राप्त करलेनेकी परमावश्य..