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जीव और कर्म-विचार ।
[ २६ पड़ेगा, कारण विना कार्य मानना पडेगा । पदार्थोंमें नवीन नवीन गुणों की उत्पत्ति माननेसे पदार्थों की स्थिति नहीं हो सकेगी। दूसरे मूल पदार्थ परमाणुमें दूसरे क्षण में चैतन्यका मभाव मानना असंभव होगा क्योंकि वस्तुका त्याग (अभाव) होना दुर्घटनीय है ।
इसी प्रकार परमाणुसे चैतन्य शक्ति भिन्न हैं तो परमाणुकी वह शक्ति नहीं है । यदि अभिन्न है तो उसका नाश ( अभाव ) होना असंभव है ।
परमाणुमें चेतन्य माननेमें एक यह भी विचार है कि जलके परमाणुमे चैतन्यशक्ति जलरूप होगी और अनिके परमाणुमे तन्य शक्ति अग्निरूप होगी तो फिर इससे चैतन्यशक्तिमें विभिन्नता प्राप्त होगी । एक द्रव्यमें इस प्रकार विभिन्नता मानना प्रत्यक्ष विरुद्ध है, परस्पर विरोध धर्म एक साथ एक समयमें एक नृय रह नहीं सके हैं ?
भिन्न २ परमाणुमें चंतन्यता मानने पर अनेक परमाणुओंसे मिलकर बने हुये एक शरीरमें मनेक चैतन्य (जीवको) रखना किस प्रकार संभावित होगा । लोकमें एक शरीरमें एकही चैतन्य रहता है । समस्त चैतन्य परस्पर मिल नहीं सके हैं। जीव राशि अनंत हैं। परंतु प्रत्येक जीवके प्रदेश जुदे जुदे हैं। एक जीवके प्रदेश दूसरे नावके प्रदेशमें मिल नहीं सके ? यदि मिल जाय तो द्रव्ध अपनी शक्तिले रहित होकर एक ही हो जायगी ।
परमाणुमें जो चेतनता है जीव है उसको मिलाकर एक शरीराकार घनानेवाला कौन है ? जो स्वयं मानेंगे तो सब जीव परस्पर एक किस प्रकार मिल गये ? जो दूसरे किसीने मिला दिये