________________
नाव भोर कर्म-विवार।
यदि थोड़ेसे समयके लिये ऐसाही मान लिया जाय कि जीव नहीं है ? तो शरीरमें ज्ञानादिकक्रिया जीवके बिना कैसे होती है।
शराब (मद्य ) बोतलमें रखी हुई अपना असर कुछ नहीं करती है क्योंकि अचेतन पदार्थमें विकृति देखने में नहीं आती है। परंतु वही मदिरा शरीरके भीतर जाने पर विकृति करती है। इससे मालुम होता है कि वह विकृति शरीरको नहीं है। शरीर. को होती तो अन्य अचेतन पदार्थमें भी वह मदिरा अपना फल (असर ) दिखलाती या मृतक शरीरमें भी विकृति होने लगती सोतो होती नहीं है। मदिरापानसे जो विकृति होती है वह जीव को ही होती है और उसका व्यंजक शरीर है। क्योंकि हर्ष विशाद शोक मुर्छा संतोष तृप्ति सुख आदि जितने विकृतिके कार्य दीखते हैं वे सब एक मात्र जीवके कार्य है। जीवके विना हर्ष शोक विषाद आदि कार्य अचेतन पदार्थमें हो नहीं सक्त हैं । . यद्यपि जीव-पदार्थ प्रत्यक्ष इन्द्रिय-गोवर नहीं है तोमी भूतप्रेत-पिशाच और उनके द्वारा होने वाले कार्यसे जीवकी सत्ता अबाधित रूपसे सिद्ध हो जाती है । भूत-प्रेतोंका प्रत्यक्ष कभी कभी सर्वत्र सर्वकालमें होता है। जो जीवको नहीं मानते हैं; उनको भी कभी कभी भूत-प्रेतादिकोंके कार्य देखनेमें आते हैं। अगतिगत्या उनको जीव अवश्य ही मानना पड़ता है। क्योंकि भूत-प्रेतादिकको अकांडव कार्य अमानुषोक और अप्रतिरोध होते हैं। उनका शोधन मनुष्यकी बुद्धिसे परातीत है। इसलिये जीवको माने बिना सिद्धि नहीं होती है।