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जीव और कर्म-विवार । मभव्यले अनंतगुणे जीव रहते हैं। निगोदशीर साधारण वनस्पति में माना गया है। एकतो साधारण वनस्पति वह जो प्रवाल, अंडर आदिके स्वरूप में है। जिसको तोडनेपर समान भंग हो तो वहां यहां तक वह वनस्पति साधारण है फिर वही प्रत्येक रूप हो जाती है। अथवा पत्ता (पत्र) आदिमें जव तक रेखा या नसकी उत्पत्ति'स्पष्टरूपसे नहीं है तब तक वह साधारण है। । दशकंदमें सदैव साधारणही संज्ञा है वह प्रत्येक किसी भवस्था नहीं होता हैं इसीलिये कंदको, खाना या गर्मकर सेवन करना भी सर्वथा विरुद्ध है।
जिस प्रकार अन्य प्रत्येक वनस्पति प्रासुकाकरने पर सेवनीय हो जाती है उस प्रकार साधारण वनस्पति शुद्ध नही होती है इस लिये पकाकर या सुखा (शुष्क ) कर छेदन भेदनकरके भी कंदका सेवन नहीं करना चाहिये। ऐसे नहीं सेवन करने योग्य कंद आल भरई गाजर मूली आदि है। " ..
समस्तजीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद है। एफेन्द्रिय घादर, एकेन्द्रिय सूक्ष्म, दो इन्द्रिय, तीनइन्द्रिय चार इंद्रिय, । ५ असंज्ञो पचेन्द्रिय, संज्ञोपवेन्द्रिय ये सातों पर्याप्त और अपर्याप्त भेदसे जीवोंके चौदह भेद होते हैं।- - . - मार्गणा (गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, पाय, ज्ञान, संयम दर्शन, लेण्या, स्म्यक, भव्यत्व, संज्ञो, आहार ) :इस प्रकार मार्गणा भेदसे जीवोंके वौदह मेद होते हैं। " --
इसी प्रकार गुणस्थान भेदसे भी जीवोंके १४ भेद है। अनं