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जीव और कर्म-विचार । पूर्ण हो वह पर्याप्ति नामकर्म है। एकेंद्रिय जीवोंके वार पर्याप्ति होती हैं। दो इन्द्रियसे असैनी पंचेन्द्रिय जीवों तक पांच पर्याप्ति होती है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके छह पर्याप्ति होती है।
अपर्याप्ति नामकर्म-जिप्स मैके उदयसे जीवोंको आहारादि पर्याप्ति परिपुर्ण करनेकी सामर्थ्य नहीं हो-पर्याप्ति परिपूर्ण करे विना ही मृत्युको प्राप्त होजावे वह अपर्याप्ति नामकर्म है।
स्थिर नामर्म-जिस शुभकर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें ऐसी विलक्षण शक्ति प्राप्त हो जिससे कि दुसर तपश्चरण-उपचासादि कायक्लश करने पर भी शरीर और शरीरके अंगोपागमें चरावर स्थिरता बनी रहे। किसी प्रकारको अस्थिरता शरीर और अंगोपांगमें प्रकट न हो । वह स्थिर नामर्म है। भावार्थ मनु. प्योंका शरीर आहार पानी के न मिलनेसे थोडेसे समयमें हो कृश होने लगता है। तपश्चरणसे आहार पानीका निरोध और इच्छाका निरोध होता है इसलिये साधारण मनुष्योंका शरीर व अंगोपाग तपश्चरणसे कृश हो जाते हैं मांस रुधिर मेदा धातु और उपधातु की स्थिरता नहीं रहती है। परंतु जिन जीवोंको स्थिर नामकर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें मांस रुधिर मेदा धातु मादि रलोपरस कायक्लेश करने पर भी स्थिर रहते हैं। यह पुण्यकर्मके योगले प्राप्त होता है।
अस्थिर नामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें रस उपरसकी स्थिरता न हो, वह अस्थिर नामकर्म हैं। जरा सा शीत-या सहज उष्ण लहन करने में जो शरीर या आगोपांग सहन