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________________ जोव और धर्म-विवार। [१६१ दु.स्वर नामकर्म-जिस फमके उदयसे जीवोंके शरीर में कर्णभेदो-टुक-अप्रिय एवं सुनने मात्रसे ग्लानि उत्पन्न हो ऐसा स्वर प्रकट हो वा दुःस्वर नामकर्म है जैसे काक गदहा आदि जीवोंका स्वर बहुत ही पीडाफर होता है वह सब दु.स्वर नामकर्म का उदय है। शुमनामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें ऐसे मनोहर मागोपागको रचना हो कि जिसको देखने मात्रसे ही सत्य जीवोंका मन लुभाय जाय-नेत्र और मन वश होजाय वह शुभनामकर्म है। __ अशुभनामकर्म--जिस धर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें ऐसे विरूप आगोपागकी रचना हो जिसको देखने मात्रसे अन्य जोवासो ग्लानि अप्रियता और पोडा हो वह अशुभ नामर्म बादर नामर्म-जिम्म फर्मके उदयसे जीवोंको ऐसा शरीर प्रात हो जिससे अन्य जीवोंके शरीरको बाधा हो। दूसरे जीवोंके शरीरको रोकता हो और स्वयं दूसरे जीवोंके शरीरसे रुक जाता हा । वह वादर नामकर्म हैं। सूक्ष्म नामर्भ-जिल कर्मके उदयसे जीवोंको सुक्ष्म शरीर प्राप्त हो वह सूक्ष्म नामकर्म है सूक्ष्म जीव किसी भी,जीवको व्याघात नहीं पहुंचाते हैं और न उनका व्याघान कोई कर सका है। पर्याप्ति नामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको ( आहारशरीर-इन्द्रिय श्वासोश्वास-मापा और मन ये छह) पर्याप्ति परि
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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