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________________ १६० ] * जीव और कर्म विचार | त्रस नामकर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको पर्याय ( दो इन्द्रिय-तीन इन्द्रिय-वार इन्द्रिय- पाव इन्द्रिय शरीरको शरीर कहते हैं, प्राप्त हो वह त्रस पर्याय है । जो गमन करे वह त्रस और स्थिर रहे वह स्थावर ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिये क्योंकि हवा ( पवनकाय) के जीव गमन करने पर भी स्थावर हैं । और बहुतसे त्रस जोवों में गमन करने की शक्ति नहीं होनेपर भी नाम कर्मके उदयसे वे दो इन्द्रिय आदि पर्याय कहे जाते है । इस कर्मका भाव कह नहीं सके है क्योकि इस कर्मके बिता दो इन्द्रिय आदि इन्द्रियों का अभाव होगा जो प्रत्यक्ष सबको दृष्टिगोचर हो रही है । स्यावर नामक — जिस कर्मके उदद्यते जीवोंको पृथ्वोकाय आपकाय तेजकाय वायुजाय - वनस्पतिकाय शरीर प्राप्त हो । एकेन्द्रिय शरीरधारी जीवको स्थावर कहते हैं । सुभगनाम - जिल कर्मके उसे जीवोको जनमन रजन क नेत्राला परम सौभाग्य युक्त देखने में सबको प्रिय शरीर प्राप्त हो वह सुभग नामकर्म है। दुर्भग नामकर्म - जिल कर्मके उदयसे स्त्री पुरुष के शरीर मे सुंदरता होने पर भी परस्पर प्रोनिकर न हो वह दुभंग नामस्मे है । दुभंग कर्मके उदयले सुंदर शरीर होनेपर भी दूसरों को प्यारा नहीं लगता है जिससे उसको कोई भी नहीं चाहता है । सुखर नामकर्म - जिस कर्म के उदयसे शरीर में सर्वजन क्पंप्रिय-अतिशय मनोश और मधुर स्वरकी प्राप्ति हो वह सुखर नामकर्म है । जैसे कोयलका स्वर । -
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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