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________________ १०४ ] जीव और कर्म- विचार । पड़नेका धर्म भी आच्छादित होजाता है । उस मैलको घोडालने पर दर्पण में प्रतिछाया फिर भी उसी प्रकार पडने लगती है ठीक इसी प्रकार आत्मापर कर्मोंका मैल चढ जानेसे ऐसा आवरण आत्मा पर हो जाता है कि जिससे पदार्थोके जानने की शकि नष्ट होजाती है । 1 ज्ञानावरणी कर्म आत्माकी ज्ञानशक्तिका आवरण करता है पुद्गलोंमें आत्मा के संबंधसे ऐसी विलक्षण शक्ति प्रक्ट हो जाती है कि जिससे वे पुद्गल ज्ञानावरण वर्ग आत्माके शानको आच्छादित करदेते हैं ज्ञानगुणो द - लेते हैं । भावरण करलेते हैं। इसीको ज्ञानावरणरूप प्रकृतिकर्म कहते हैं । ➡ जिस प्रकार मेघका पानी एक नीवृनें तीव्र खट्टा और दूसरे नीबूमें कम खट्टा और तीसरे नीबूमें उनसे भी कम खट्टा भाव परिणमन करता है क्योंकि भिन्न -२ नीवके भाव द्रव्य क्षेत्र कालकी योग्यता भिन्न २ रूपसे है । इसीप्रकार अनंत आत्माओंके भिन्त भिन्न प्रकार के भाव होनेसे वही पुद्गल कार्मणवर्गणा भावों को तीव्रतर - मध्यम रूप परिणति होनेसे ज्ञानके आवरण में धन सघन और निविड सघनता उत्पन्न करता है। कोई कर्मभावोंकी मंद परिणमनसे ज्ञानका मंद आवरण करता है कोई कर्म, भावों की तीव्रतासे तीव्र ( सघन ) ज्ञानका आवरण करना है । इसीलिये एक जीवको कम ज्ञान है तो दूसरे जोवों को विशेष ज्ञान है तीसरे जीवोंको और भी विशेष परिज्ञान हैं। मतिज्ञानावरण कर्म- जो कर्म मन और इन्द्रियोंके द्वारा होने '
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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