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________________ ~~~~~ man जीव और कम बिचार। [२३ कालिमा-कोट-मल-मिट्टो फिसी प्रकार भी संवदिन नहीं होती है। सुवर्णके समान जीवसे कर्ममल ध्यानरूपी अनिके द्वारा भस्मीभूत हो जाय तो फिर उस जीवात्मा पर किसी प्रकार भी कर्ममल प्राप्त नहीं हो सका है। इसलिये कर्म-कर्मफल और कोके मोचनका परिज्ञान प्र. प्रत्येक जीवोंको अवश्य ही होना चाहिये। फर्म-कर्मफलका स्वरूप यथार्थ जाने बिना ही अनंत मत म. तांतरोंकी उत्पत्ति हुई हैं। जीवके स्वरूप में ही समस्त मत-मतांतरोंका वाद विवाद है और जिसको अनभिज्ञता या अशान कहते हैं वह केवल जीवके स्वरूप नहीं जानने में ही है। र्मका स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है, फर्मका रूप अत्यंत परोक्ष है, अतीन्द्रिय है। इसलिये उसका पूर्ण प्रत्यक्ष एक सर्वज्ञ भगवानको ही होता है। अन्य छमस्थ जीवोंको कर्मके स्वरूपका प्रत्यक्ष परिज्ञान होना दुर्लभ है। कर्म आत्माके साथ संबंधित है । इसलिये स्थूल काँका फलरूप नो कर्म औदारिकादि शरीर फथंचित ज्ञात होता है। परंतु कामण पिंड अत्यंत सूक्ष्म होनेसे दृष्टिगोचर नहीं है। इसलिये संसारी व्यामोही उनस्थ जीवोंको न तो भामाका यथार्थ परिज्ञान है और न कर्मके स्वरूपका ही परिज्ञान है। इसीलिये जोवके स्वरूप मानने में अनेक प्रकारकी विभिन्नता प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही है। जीचके स्वरूप मानने में कोई तो कारण-विपर्यासको धारण कर रहा है, कोई भेदाभेद-विपर्यालको धारण कर रहा है और कोई स्वरूपमें ही विपर्यासताको धारण कर रहा है।
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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