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जीव और कर्म-विवार। कितने विचारशील जीव-पदार्थको ही नहीं मानते हैं। क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण जीवकी सत्ताको सिद्ध करने में असमर्थ हैं। जो जीवकी सत्ता प्रत्यक्ष सिद्ध होती तो सबको जीव-पदार्थ दृष्टि-गोचर होता। परतु भाज तक किसीने जीवको प्रत्यक्ष देखा नहीं है ? अनुमान प्रमाणसे भी जीव-पदाथकी सिद्धि वे नहीं मानते हैं । अनुमान प्रमाणको सत्यता (प्रमाणना) का विश्वासही फ्या है थे लोग यह भी कहते है कि नव प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे जीव नहीं है तव आगमसे मानमा फेवल बालकों का खेल है। मथवा भोले लोगोंको समझाना हैं।
जो यह मनुष्य पशु-पक्षी आदि प्राणियोंमें इलन-चलन, गमनागमन, खान-पान, भाषण आदि क्रिया हो रही है उससे शरीरमें जीवकी कल्पना कर ली जाय सो भी रोक नही है क्योंकि एक तो कल्पना करना ही मिथ्या है। दूसरे इस प्रकारको क्रियायें पंचभूत में होती हैं। परंतु पंचभूतको जीव नहीं माना जाता है। पंचभूत (मेटिरियल) भपनी उन्नति फरते करते गमना गमन, हलन चलन संभाषण मादि क्रियाखें फरने लग गये। इसलिये जीप-पदार्थकी कल्पना करना यह सब प्रकारले अज्ञान मालुम होता है।
जब जीव पदार्थ ही अपनी सत्तासे सिद्ध नहीं है। तय कर्म मौर कर्मफलको सिद्ध करनेकी क्या आवश्यकता है ? जच जीव पदार्थ ही नहीं है तब स्वर्ग-नरक मोक्ष जन्म-मरण आदिकी फल्प. ना करना मूलके विना शाखा फल-पुष्पकी कल्पना करना है । परंतु वह न्याय सप्रमाण सिद्ध है कि "मूलं नास्ति कुतो शासो"।