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जोध मौर कर्म-विवाद |
यद्यपि
यहा पर यहाँ विचार करना है कि जीव है या नहीं ? नौरोंको घट-पट - मठ के समान जीव प्रत्यक्ष ( इन्द्रियप्रत्यक्ष ) नहीं है । क्योंकि संसारो जीव कर्मसहित होने पर भी इन्द्रिय- गोवर नहीं होता है और शुद्ध-जीव तो भमूर्तिक होनेसे सर्वथा ही इन्द्रिय-गोचर हो नही सक्का ? परंतु स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा सबको प्रत्यक्ष होता है । शरोरसे भिन्न "मैं हु" इस प्रकार की प्रतीति सबको प्रत्यक्ष होती है । "मैं सुखी हैं, मैं दुखी हूं, मैं सूखा हूं, मैं पियासा हूं, मुझे पीडा है, मैं जानता हू" इत्यादि मनेकप्रकार आत्माका स्वसंवेदन करने वाला ज्ञान सबको प्रत्यक्ष होता है । जो शरीरसे भिन्न अन्य जीव पदार्थ नहीं होता तो उसका स्वसवेदन करानेवाला मान क्यों होता ! और स्वसवेदन ज्ञान सब को होता है । इस प्रकार स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा जीवकी कत्ता मनिवार्य सिद्ध होती है ।
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में सुखी हूं, मैं जानता हूं में देखता है, इस प्रकार सुख ज्ञान और दर्शन गुणोंकी प्रतीति जड़पदार्थ में होती नहीं है । जानने रूप क्रिया या देखने रूप क्रिया यह आत्माका ही धर्म है । जट पदार्थों में (पंचभूनोंमें ) निमित्त संयोगसे गमना - गमम, इलनचलन और संभाषण आदि क्रियायें हो सक्ती है क्योंकि पुद्गल द्रव्यकी ये समस्त पर्याय हैं । अजीव पदार्थ में भी ऐसी शक्ति है जो एक समय में चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रमें गमन कर सक्ता है । नार या चे-तारके तार द्वारा जो गमन क्रिया जडपदार्थ की हो रही हैं, वह न कुछके बराबर है। परंतु इससे भी अनंतगुणी वेगवती