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२२१ जोव और कर्म-विचार। है। वैराग्य भावना उसको ही प्राप्त होती है जो कर्म और कर्मफलको जानता है। संसारके स्वरूपको यथार्थमें यही समझा हुआ है कि जिलने कर्म और धर्मफलके स्वरूपको समझ लिया है। वही मुनिपदका अधिकारी है । वही श्रावक-धर्मका पालन करनेमें यथार्थ अधिकारी है जिसने कर्म और कर्मफलके स्वरूपको पहिचान लिया है। वह शीघ्रही बंधन मुक्त होने वाला है जिसने धर्म और कर्मफलको अपने स्वरूपसे भिन्न समझकर कर्माको नाश करनेका प्रमत्म किया है।
मोक्षकी प्राप्ति उन जीवोंको ही होती है। जिनने कर्म और कर्मफलसे अपनेको पृथक कर लिया है। कर्मोकी सत्ता जब तक सात्मा पर है तब तक संसार ही है। कोंके सर्वथा नाश होने पर जीवको मोक्ष होती है। - धर्म और मफलसे सर्वथा रहित आत्मा ही परमात्मा होती है। नो कर्म भौर कर्मफल सहित है वह संसारी आत्मा है। मशुद्ध थात्मा है, जन्म-मरणके चक्र में प्लालित आत्मा है।
जिस प्रकार सुवर्णमें जबतक मल मिट्टी और कीटका संबंध है तब तक वह शुद्ध सुवर्ण नहीं कहा जाता है । उसको सुवर्णका पापाण कहते हैं। जो सुवर्णकी कीमत है वह सुवर्ण पापाणकी नहीं है । जो रूप रंग और कोमलता, मनोहरता, स्निग्धता मादि सुवर्णमें गुण है वह सुवर्ण पापाणमें प्रत्यक्ष रूपसे व्यक नहीं है। परंतु जब वह मल मिट्टी सुवर्ण पाषाणसे दूर हो जाती है तब ही सुवर्ण अपने स्वरूपमें प्रकट होता है। फिर उस सुवर्णम