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६८ जीव और कर्म-विचार।
जीवका अकर्तावाद कितनेही मतवाले जीवको अमर्त्ता मानते हैं। उनका मानना भी कर्म और कर्म-फलको नहीं माननेके समान है, जीवको अकर्ता माननेसे जीवको कर्म और कर्मफलका कर्ता और भोका नहीं होगा, जब जीव कोका कर्ता ही नहीं है तो जीवके द्वारा होने वाला पाप और मलिनाचरणोंका फल कैसे प्राप्त होगा। अकर्ता माननेसे जप-तप-पूजा आदिका करना निरर्थक होगा। , एक मनुष्य चोरी या अन्याय कर रहा हैं यदि जीवको अकर्ता माना जाय तो चोरी या अन्यायका करनेवाला कौन है ? यदि ईश्वरको कर्त्ता माना जाय तो वोरी करनेवाले एक साधारण मनुष्यको ईश्वर माना जाय क्या ? यदि ईश्वरने अन्त:करणमें प्रेरणा की और ईश्वरकी प्रेरणासे एक साधारण मनुष्यने चोरी या अन्याय किया तो उसका फल ईश्वरको होना चाहिये परंतु न्ययालय (कोट) ईश्वरको दंड नहीं देता है किंतु उस व्यक्तिको ही दंड देता है जिसने कि चोरी या अन्याय किया है। इसलिये ईश्वरकी प्रेरणासे अन्याय यो चोरी आदि कार्य हुए ऐसा मानना बन नहीं सकेगा। दूसरी बात एक यह भी है कि जीवको अकर्ता मानलिया जाय तो वेश्यागमन बोरी अन्याय दुराचार आदि पाप कर्मोको क्या ईश्वरने कराया ? यदि ईश्वर अन्याय चोरी दुराचार करावे तो वह ईश्वर ही क्यों माना जाय? दूसरे प्रत्यक्षमें कार्य तो ईश्वर कर्ता नही है। साधारण व्यक्ति ही कर्ता है तो फिर जीवको अकर्ता किस प्रकार माना जाय?"