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________________ जोच और कर्म-विचार। जीवको अकर्ता मान लिया जाय तो संसारके समस्त व्यवहार लोप हो जायगे तथा प्रत्यक्षमें होनेवाले कार्योंका लोप मानना पडेगा। ___ यदि जीवको अकर्ता माना जाय और उसमें ईश्वरको तटस्थ रखा जाय तो खान पान व्यवहार नहीं हो सकेंगे। तथा कर्म और कर्मफलको प्राप्ति नहीं हो सकेगी एवं जीवको अकिंचित्कर मानना पडेगा। जीव प्रत्यक्षमें समस्त कार्य करते दीख रहे हैं जीवको अकर्ता माननेसे जीवका हलन चलन गमनागमन आदि समस्त व्यापार वंद हो नायगे। यह बात सबको प्रत्यक्ष है कि जीव समस्त कार्य फरते हैं। ईश्वर कर्ता सिद्ध भी नहीं हो सकता, कारण जगतमें जितने भी कर्ता पाये जाते हैं वे सव इच्छावाले है, शरीरवाले हैं, इष्टा-निष्टा वुद्धि रखने वाले हैं परंतु ईश्वरके इच्छा भी नहीं है और इष्टानिष्टा वुद्धि भी नहीं है ऐसी अवस्थामें वीतरागी अशरीरी अमूर्त ईश्वर जगतकी रचना करने में सर्वथा असमर्थ है। फिर ईश्वर जगत् वनानेमे, उपादान कारण है या निमित्त कारण है इत्यादि विचार करनेले भी वह जगतकर्ता किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता है। कितने ही मतवादी जीव-पदार्थ मानते हैं परंतु जीव-द्रव्य. को क्रिया रहित मानते हैं। प्रकृति ही सब कुछ क्रिया करती है ऐसा मानते हैं। पुरुष निर्लेप रहता है प्रकृति समस्त कार्य करती है। प्रकृति में समस्त की शक्ति है पुरुष प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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