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________________ ७० ] जीव और कर्म- विचार । हैं । पुरुषको आत्मा कहते हैं । प्रकृतिको कर्म या माया कह सक्के हैं । पुरुषको गुणोंसे निर्लेप मानना और प्रकृतिको शक्तिशालिनी मानना, बुद्धि आदि गुण विशिष्ट मानना यह सर्वथा प्रमाणसे विरुद्ध है । यदि पुरुषको गुणोंसे सर्वथा निर्लेप मानलिया जाय तो आत्मा गुण रहित होनेसे शून्य हो जायगा । पुरुष आदि है या प्रकृति ? जो प्रथम पुरुषको मानें तो पीछेसे प्रकृति कहांसे आगई ? और आदि पुरुष निर्गुण रहा या सगुण ? जो निर्गुण था तो वह पुरुष क्योंकर हो सक्ता है ? जो पुरुष प्रथमसे ही गुण सहित था तो पीछेसे प्रकृतिने मिल कर क्या काम किया ? जो प्रकृति और पुरुष एक साथ उत्पन्न हुऐ तो प्रकृतिसे पुरुष भिन्न है या अभिन ? जो प्रकृतिले पुरुष भिन्न है तो प्रकृतिले भिन्न पुरुष क्या कार्य करता है ? और पुरुष (आत्मा) गुण रहित प्रकृति में भिन्न होकर कैसे मिलगया ( संबंधित होगया ) जो स्वयं तो बिना कारण बंध नहीं होता है ? जो ईश्वरने पुरुषको प्रकृति से मिला दिया तो सगुण प्रकृतिमें निर्गुण पुरुषको ईश्वरने कैसे मिला दिया ? जो प्रकृति से पुरुष अभिन्न है तो फिर प्रकृति और पुरुषमें क्या भेद है । प्रकृति और पुरुष इस प्रकार दो पदार्थ मानने से क्या लाभ ? एक ही माननेसे कार्य सिद्ध हो सका है। सांख्यमतवादी पुरुष और प्रकृतिको भिन्न भिन्न पदार्थ
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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