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जोव और कर्म-विचार ।
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क्षयोपशम है तो ही ज्ञान सम्यग् तत्वज्ञान करायेगा । इसीलिये मोहनीय मनन संसारका कारण है ।
मोहनी फर्मके उदयमें ही आत्मवीर्य प्रकट नहीं होता है । कर्मबंध में विशेषता इसलिये निरंतर बनी रहती है । स्वघातसंबंधी दिसा मोहनी के उदयसे जीवों को होती ही रहती है और परघात संबंधी हिला भी मोनीष र्मके उदय में तीव्रतर रहती है ।
इसीलिये जिन जीवोंके मोहनीर का उदय है उनके चारित्र हिंसा रूप ससारको बढ़ानेवाला ही होता है। किसी प्रकार योग ( दीक्षा ) धारण करती जाय तो भी उस दीक्षाका फल यथेष्ट प्राप्त नहीं होता है ।
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मोहनके उदय में इस प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सत्यवाग्यि ये तीनों हो गुण प्रकट नहीं होते हैं इसलिये मोहनी धर्म पलवान है |
कर्म अपना प्रभाव जीवोंपर पूर्णरूपले प्रकट करते है जीवका स्वरूप कके उदयसे स्पष्ट रूप से हासित नहीं होता है । कोई भी जो अपनी तंत्रनाको नष्ट नहीं करना चाहता है परंतु ' मोंके उदयसे जीवों को स्वतंत्रता नष्ट हो गई है ।
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जीन संसारचक्रमें फर्मोके निमित्तसेही घूम रहे हैं। निरंतर जन्म मरण दुःखों को यमके निमित्तसे भोगते हैं कर्मोकी सत्ता, जब तक जीवों पर है य जीवोंकी स्वतंत्रता कभी भी प्राप्तनहीं हो लकी हूँ इसलिये स्वतंत्रता प्राप्त परनेने लिये कर्मोंकां स्वरूप जान लेना और उन्हें दूर करना परमावश्यक है ।
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