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'जीव और फर्म- विचार ।
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१३ सयोगकेवली - चार अनंत चतुष्टयको प्राप्त समोसरण लक्ष्मी विभूषित केवलज्ञानमंडित आत्माको सयोगकेवली कहते हैं इस तेरहवें गुणस्थानमें जीव चार घातिया कर्मोंके नष्ट होनेसे परम वीतराग, सर्वज्ञ अहंप्रभु बन जाता है ।' यही जीवन्मुक्त परमात्मा कहलाता है ।
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१४ अयोगकेवली - समस्त कर्मों का नाश करना सो अयोगकेवटी गुणस्थान है । इस चौदहवें गुणस्थान में समस्त अघातिया कर्म और शरीरका भी नाश आत्मा कर देता है । यह कार्य शुक्लध्यानके अंतिम पाये से (व्युपरत क्रिया निवृति ध्यानसे) होता है । इंस गुणस्थानके समाप्त होने पर आत्मा सिद्धालय में विजिमान हो जाता है फिर वहासे लौटकर कभी भी संसार में नहीं आता हैं । उसी सिद्धावस्थाको 'जीनकी मोक्ष; अमूर्तस्वभावे आदि कहते हैं ।
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कमों में मोहनी कर्म की प्रधानता गुणस्थानोंके स्वरूपसे मालूम होता है कि समस्त कर्मों में
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मोहनी कर्म प्रधान है उसका कारण यह है कि ।
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'घातिया' समस्त कर्म अपना रसं 'मोहनी' धर्मके उदय विपरीत अनुभव कराते हैं जैसे ज्ञानावरणीके क्षयोपशमसे 'शान' होता है । यदि उस ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम के साथ २ मोहनीफर्मका उदय है तो वह ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होनेवाला' ज्ञान - अज्ञान रूप" भ्रांति रूप; विपरीत रूप और, अन्यथा रूप
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होगा। यदि ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके साथ मोहनी कर्मका