SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव और कम विचार [१२१ निद्रामै ( सोते सोते)ही भारी भारी कार्य कर लेने और निद्रा. के दूर होनेपर उसका निवार नहीं रहे । निद्रा न्दिो ही में गांव नापर आजावे और पुनः निद्रामें मग्न होजाये वह स्त्यानगृद्धि नामका दर्शनावरण वर्म है। .. त्यानगृद्धिसे दांत पटस्टासमान होते हैं। निद्राले उटकर पुन गिरता है। मारने लगता है दोना है। स्वप्नमे भयानक कोडा करता है और नृत्य स्रने लगता है। जागृत अवस्थाके बहुनले कार्य निद्रा अवस्थाने ही जीत्र स्वानगृद्धि निद्रा उदसे करना है। इस प्रकार दर्शायरण को प्रतीहारके लमान आत्मा दर्शन परनेमे बाधक होता है। दर्शनावरण कर्मके साथ जो मोहनी (मिथ्वात्व) का उदय होतो जीयोकी दशा बडी भयानक हो, जाती है। शनावरणकर्मके क्षयोपशममें भी पदायाँका दर्शन विपरीत दीसता है। भ्रांतिस्वरूप दीखना है। अनिश्चयात्मक दर्शन होता है या कुछका कुछ प्रतिभालने लगता है । जिस प्रकार मिय्यात्मके उदयके योगसे ज्ञानमें विपरीतभाव होते हैं चैतेही मिथ्यात्वके उदयके योगले दर्शनमें भी विपरीत परिणति होती है। - - - - - • वेदनीयम-जिल कर्मके उदयसे जीव सुख दुःखके कारण-- भूत भोगोपभोग पदार्थोंको भोगनेसे-आस्वाद लेनेसे.सुख और दुःखकी प्रतीति माने, सुख दुखका वेदनकर अपनी आत्माको सुखी दुःखी माने सो वेदनीयम है। .......... . - जिस प्रकार तलवारकी धारपर मधु (शहत.) लगाकर
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy