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________________ - १२२] जीव और कर्म-विवार। मास्वादन किया जाय तो मधुके आस्वादनले मधुरताका सुख और तलवारकी धारकी तीक्ष्ण वेदनासे दुःखका उद्धोध होता है उसी प्रकार एकही वेदनीयकमसे जोषको सुरबदुःख प्रदाच होता है। यद्यपि जीव मीन्द्रिय, निराकुल,अनंत अन्यावाध, अक्षय ऐसा आत्मीय सुख स्वभाववाला है। वह आत्मीय मन्त-सुख आत्मामें खभावरूपले सदैव प्रवाहित होता रहता है किसी दूपरे पदार्थके संयोगकी अपेक्षा नहीं है। या प्रयत्न करनेकी अपेक्षा नहीं है उस सुखका भास अनुवेदन करनेसे नहीं होता है और न उसके लिये फिसी प्रकारकी चाहना करनी पड़ती है किंतु उस सुखमय आत्मा होनेसे.सुखका अनुमोग स्वयमेव मात्मधर्मरूपी होता ही रहता है। सुख दुःखका आस्वादन इन्द्रिय और मनके कारणसे प्रतीत है किंतु जीवके इन्द्रिय और मन नहीं है जिससे सुख दुःखका वेदन करें परन्तु अनादिकालले संसारी जीवकी आत्मा अशुद्ध होरही है। चेदनीकर्मकी पराधीनता प्रवलताके साथ होरही है। जिससे यह जीव वेदनीकर्मसे प्राप्त पर-पदार्थ मोगोपभोग इटानिष्ट सामग्रीकी प्राप्ति और अप्राप्तिमें अपनेको सुखी दुःखी हैं पर-पदार्थोंसे सुख दुःखका अनुवेदन करता है । आस्वाद करता है। अनुभोग करता है, संवन करता है, आकांक्षा करता है और उसके फलमें हर्षित होना है विषादको प्राप्त होता है यह सब वेदनीकर्मके पदयसे हो जीवका परिणमन ऐसा होरहा है। जीव अपने शुभाशुभ कृत्याद्वारा, अएने भले-बुरे विचार द्वारा
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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