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जीव और कर्म- विचार ।
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(७) प्रचलदर्शनावरण कम- जो कर्म अपने उदयसे वाप अवस्था में आत्माका प्रचलित कराना है या नेत्र इन्द्रिय सृकुटि विकार कराता है, उसको
आदि अङ्गोपाङ्गमे किया करता है, प्रचला दर्शनावरण कर्म कहते है ।
मला नामक निद्रा के उदयसे जीवोंके नेत्र वालुका समोन हो जाते है । शिपर किसीने मारो वजन लाद दिया हो ऐली प्रतीति होती है । बारम्वार नेत्रोको खोलता है और मीचना है । मनमें यह शक रहती है कि अब में गिरा अभी पडता है | बैठे २ सोने लग जाय । कॉम करते र जंभाई लेने लग जाय इत्यादि अनेक प्रकार दुश्चेष्टा प्रचला नामक दर्शनावरण कर्मके उदयले जीवों होती है ।
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८ प्रचलाप्रचलादशनावरण कर्म- जो धर्म जीवोंको' घोर निद्रा उत्पन्न करे, बेहोसी बनी रहे, मृच्छसे शरीर कार्य करनेमें सर्वथा असमर्थ बना रहे, शरीर के समस्त अवयव विद्वाकी प्रवलतासे शिथिलरूप होजार्वे, नेत्र भृकुटि विकारी बन जावे, निद्रा लेनेपर भा पुन. पुन' निद्रा केही भाव प्रकट होते रहें । दुःख और दुष्ट सदेव बनी रहे । इत्यादि घोरतम निद्रा के उत्पादक कर्मको प्रचला- प्रवला दर्शनावरण कर्म कहते हैं ।
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प्रचला - प्रतला निद्वासे मुखमेंसे लार बहती हैं, घुर्राटे लेकर भयंकर शब्दों का करता है, शिर हिलने लग जाता है और भी दुख टायें प्रचलाप्रचला दर्शनावरण कर्मके उदयसे जीवों को होती हैं। - स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण कर्म जिस कर्मके उदयसे जीव
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