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________________ जीव और कर्म विचार । ११६ ● (५) निद्रादर्शनावरण कर्म-जिस कर्मके उदयसे आत्माको निद्रा उत्पन्न होती है । मद-क्लेद शोक संताप और श्रमको दूर करनेको जो स्वाप लिया जाता है उसको निद्रा कहते हैं यह निद्रा निद्रावरण ( दर्शनावरण) कर्मके उदयसे जीवोंको प्रकट होती हैं । निद्राके समय आत्माको चक्षु और अचक्षु दर्शनका अभाव हो जाता है इसीलिये निद्रा दर्शनावरण कर्मका ही भेद होता है । निद्राके समय पदार्थका दर्शन नहीं होता है, पदार्थ के दर्शन नहीं होनेसे मोक्षमार्गकी क्रियाका अभाव होता है । जो मनुष्य स्वल्प शब्दके श्रवणमात्रले निद्राका परित्यागकर पूर्ण रूपसे सचेतन हो जावे प्रमाद और आलस्य न रहे उस निद्राको निद्रा कहते हैं । निद्रा दर्शनावरण कर्मके उदयसे जीवोंको स्वाप होता है। (६) निद्रा - निद्रादर्शनावरण कर्म-निद्रा निद्रादर्शनावरण कर्म के उदयसे स्वापके ऊपर वारम्वार स्वाप ( निद्रा ) आवे उसको निद्रा-निद्रादर्शनावरण कर्म कहते हैं । निद्र- निद्रादर्शनावरण कर्मके उदयसे जीव जरासे निमित्तकारण निद्राके मिलनेपर सहज बातमें स्वाप लेता है । वृक्ष तले ही सो जाना । विषम भूमि या समभूमिमें सोजाना, घोर स्वाप लेना, ऐसा स्वाप लेना कि जिससे जागृत होनेमें कुछ कष्ट हो । निद्रा-निद्रादर्शनावरण कर्मसे आत्माके ज्ञान और दर्शन गुणमें व्याघात होता है आवरण होनेसे दर्शनका कार्य रुक जाता हैं पुरुषार्थ किया में भी प्रमाद होता है इसलिये निद्रा-निद्रादर्शनावरण कर्मको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये । t
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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