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जीव और कर्म विचार दर्शनके अभावसे सुख दुःखका अनुभव इन्द्रियोंको कैसे हो सका है ! जो इन्द्रियोंको चैतन्य (जीव ) रूप माना जाय तो जीवकी सत्ता स्वीकार करनी पडेगी।
वास्तधिक इन्द्रियां जड़ (अजीय) हैं उनमें नान दर्शन शक्ति नहीं है। परंतु इन्द्रियोंके द्वारा पदार्थोका परिज्ञान होता है। मानने और देखने की क्रिया मात्र इन्द्रियोंके द्वारा होती है। जानने और देखनेका मार्ग इन्द्रिया है, इन्द्रियोंमें स्वयं जानने और देखने की शक्ति नहीं है। जिस प्रकार पटलोई में (वर्तनमें) पाचन शक्ति स्वयं नहीं है। पाचन शक्ति तो अग्निमें है। परंतु दालका पाचन-कर्म चटलोईके द्वाराही होता है, ऐसे जाननेकी देखने की शक्ति जीवमें है। परंतु उमस्थ जीवोंको जाननेजी देखनेकी शक्ति इंद्रियों द्वारा ही होती है।
इन्द्रियां पांच है। फिसोहमत, दश इन्द्रिया मानी है। इसलिये प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि स्पर्शन आदि इन्द्रियोंमें पृथक पृथक जीव है या समस्त इन्द्रियोंमें एक ही जीव है। जो पृथक् पृथक इंद्रियोंमें भिन्न भिन्न जीवोंकी सत्ता मानी जाय तो एक शरीरमें अनेक जीवोंकी सत्ता माननी पडेगी। इन्द्रियोंको जीव मानने से सबसे भयंकर यह आपत्ति होगी कि जिस शरीरम एक ही इन्द्रिय है उसमें एक जीव मानना पडेगा। जिस शरीरमें दो इन्द्रिय है उस में दो जीव मानना पड़ेंगे । इसीप्रकार एक शरीरमें अनेक जीवोंकी 'सत्ता मानना पडेगी। एक शरीर में पृथक् २ इन्द्रियोंमें भिन्न भिन्न जीन माना जाय तो एक शरीरमें समस्त जीवोंको कार्य एक साथ