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________________ जीव और कर्म- विचार । [ २१३ भाव उठ जाते हैं । और मास भक्षण मंदिरा पान, मोजमजा के भाव जाग्रत हो जाते है । रात्रिमें भोजन करना नीच मनुष्य के हाथ का खाना पाप कर्मों में धर्म मानना आदि समस्त दुराचरण आजाते हैं। और ऐसे भावोंसे हो तीव्र कर्म बन्ध होता है । इसलिये विवेक पूर्वक चलना चाहिये | सद्बुद्धिसे कार्य करना चाहिये । सदाचार और नोति मार्गको भूल जाना नहीं चाहिये । व्यभिचार धर्म नहीं मानना चाहिये । जिससे अनत संसारका बघहो । भव्य प्राणियोंका प्रधान कर्तव्य है कि जहां तक हो मिथ्यास्वका सर्वथा त्याग करे । तथा पुण्य कर्मों को मोक्षमार्गकी अभिलाषा ( उद्देश्य ) से सेवन करे । अपने कर्तव्य पवित्र और उत्तम बनायें सच्चरित्र वने और सर्व समाजको या जीवमात्रको सच्चरित्र बनाने का उपदेश देवे । सब जीवोंको आत्मबंधु समझकर सन्मार्ग पर लानेका प्रयत्न करे । यह नहीं कि हाथमें दीपक लेकर स्वयं कुममें गिरे तथा भोले भाइयों को भी कुआमें गिरानेका प्रयत्न करे । | जो लोग पुण्य पापको जानते हैं, वे कर्म बंधको जानते हैं वेही संसार और मोक्षको जानते हैं, सुख दुखको जानते हैं, भलाई बुराई को जानते हैं । हिताहितको पहचानते हैं, कर्तव्य और अकर्तव्यको जानते हैं । "जिनको सुखी होने की इच्छा है। जिनको दुखोंसे डर है जिनको संसारका अन्त करना है जिनको अपनी उन्नति करना है | जिनको स्वतन्त्र बनना है उनको चाहिये कि सर्व संकल्प विकल्पों
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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