SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ ] को छोड कर और देव शास्त्र गुरुका श्रद्धान र पुण्यके कार्य देव पूजा सत्पात्रमें दान, शुद्ध अन्न पान सेवन, आचार विचारोंकी शुद्धता, पिंड शुद्धि कुल शुद्धि जानि शुद्धि आदि को कायम रखकर सदाचार और सच्चरित्रले अपनी आत्माको भूषिन करे । पापाचरणोंको छोडे । कुशिक्षा में धन व्यय न करे । कुसंगति से हवे । जीव और कर्म विचार | + पुण्य प्रकृतियोंके नाम, जिनसे जीवोंको सुख प्राप्त होता है सातावेदनीय १ मनुष्यायु २ देवायु ३ तिर्यगायु ४ मनुष्यगति ५ देवर्गात ६ पंचेंद्रियजाति ७ पांच शरीर १२ तीन अंगोपांग १५ निर्माण १६ समचतुरस्त्रसंस्थान १७ वज्रनृपभनाराच संहनन १८ प्रशस्त स्पर्श १६ प्रशस्त रस २० प्रशस्तगंध २१ प्रशस्तवर्ण २२ मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्व २३ देवगति प्रायोग्यानुपूर्व २४ अगुरुलघु २५ परघात २६ आताप२७ उद्योत २८ श्वासोच्छ्वास २६ प्रशस्नत्रिहायेोगनि ३० प्रत्येक शरीर ३१ त्रस ३२ सुभग ३३. सुस्वर ३४ शुभ ३५ वदर ३६ पर्याप्त ३७ स्थिर ३८ आदेय ३६ यशकीर्ति ४० तीर्थंकर ४९ ऊंच गोत्र ४२, I इस प्रकार ४२ प्रकृति पुण्योत्पादक मानी है इन प्रकृतियोंके उदयले जीवों को सुखकर पुलों शुभकर्मो का संबंध होता है । सव प्रकार के साधन प्रशस्त और उत्तम प्राप्त होते है - पाप प्रकृतियोंके नाम, जिनसे जीवोंको दुःख प्राप्त होता है पंचज्ञानावरण ५ नवदर्शनावरण १४ सोलहकषाय ( अनंतानुबंधी क्रोधादिक ) ३० नोअंकपाय ( हास्यादिक ) ३६ मिथ्यात्वं
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy