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जोव और कर्म-विचार |
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४० पात्र अन्तराय ४५ नरकानि ४६ दियंगनि ४७ वार जाति ( एक इष्ट्रिय दो इन्द्रिय तीन- इन्द्रिय चार इन्द्रिय ) ५१ पाच संस्थान ५ पांच संहनन प्रस्तपर्ण ६२ अप्रस्नग्स ६३ सप्ररास्तगंध ६४ अप्रशस्त वर्णं ६५ नरकगति प्रायोग्यानुपुष्ये ६६ तिर्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य ६ उपधान ६८ न विद्यायोगति साधारण शरीर ७ स्थावर ७१ दुभंग ७२ दुस्वर 03 अशुभ ७३ सूक्ष्म ७५ पति ७६ बस्थिर 95 बनाय ७८ अयशस्वीति ce असातावेदनीय ८०नोवगोत्र ८१ नरकायु ८२ इनकार ये ८२ प्रकुति पापोत्पादक मानी है इन प्रकृतियोंके उदयसे जीवों से दुखकर साधन उत्पन्न होते हैं इसलिये इनका यंत्र नहीं करना चाहिये। इन प्रकृतियोंके तंत्र होने के जो कार्य बताये गये हैं उन्हें नहीं करना चाहिये | फिर कारणके अभाव में कार्य भी नहि होगा। जब बुरे कार्य नहीं करोगे तो बुरे कर्म भा नहीं वधंगे ।
सारासारका विचार |
कार पुण्य प्रकृति और पाप प्रकृतियों का निदर्शन कराया है, far कार्योंसे केवल पाप कर्मोंका या हो जीवोंको दुर्गति प्राप्त हो, रोग शोक संताप और दरिद्रता प्राप्त हो, ऐसे कार्य - हिला झूठ चोरी कुशील पापाचरण अभक्षमक्षण अन्याय सेवन - सप्त व्यसन मद्य मांस मधु भक्षण रात्रिभोजन और जिनागम तथा जिनगुरुले द्वेष आदि भयंकर पापकायको यथाशक्ति महर्निश छोड़नेशा ध्यान करना चाहिये विचार करना चाहिये । और यथासाध्य छोड़ना चाहिये |
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