________________
११४] जीव और कर्म-विचार। वाला अत्यंत पराधीन अपने स्वभावसे च्युत क्षुद्र-पर्यायोंके द्वारा जन्म-मरणको धारण करनेवाला एक प्रकारसे जरूप प्रति. भाषित होने लगता है। जिस प्रकार पुद्गलों ( कर्म ) में अचित्य शति है जीवको किस अवस्थामें परिणमन करा रखा है। परन्तु जीवकी शकि पुद्गलकर्मोंसे भी अनंतानंत गुणी अधिक है अनादिकालसे संगृहीत किये हुए दुधेर्षकर्म एक संतमुहूर्तमें यह जीव अपनी अनंत शक्तिके द्वारा नाश कर सका है। अनादि. कालके कर्मबंधनोंको एक क्षणमात्रमें तोह सका है। इसलिये अपने भावोंको विशुद्ध रखकर और जिनेंद्रभगवानके परम पवित्र शासनका शरण रखकर कर्माको नाश करनेका प्रयत्न करना चाहिये।
दर्शनावरणीकर्म-जिस प्रकार ज्ञानावरणीकर्म आत्माके ज्ञानगुणका आवरण (घात ) करता है। उसी प्रकार दर्शनाघरणी कर्म मात्माके दर्शनगुणका आधरण करता है।
मात्माका स्वभाव समस्त पदार्थको देखनेका है संसारमें ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जिसको आत्मा देख नहीं सक्ता हो। संसारके समस्त चराचर पदार्थ और त्रिकालवर्ती समस्त उनकी मूर्तीफ अमूर्तीक पर्यायों को एक साथ देखनेको शक्ति आत्मामें है। यह दृष्टीगुण आत्माको स्वभाविक गुण है। कृत्रिम नहीं है, किसी उपाधिसे प्राप्त नहीं है। देखनेका गुण मात्माको छोडकर 'अन्य पदार्थमें यह गुण सवथा नहीं है। इसीलिये आत्माका यह धर्म है। भात्माका यह स्वभाव है। आत्माका यह- लक्षण है।