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जाव और कर्म-विचार ।
आत्माको शुद्ध और अशुद्ध अवस्थामें यह गुण कथंचित किसी प्रकार घ्यक है। इसगुणके प्रभावसे ही पदार्थोंका देखना होता है ___ संसारी जीवोंको तो दर्शनपूर्वकही जान होता है। प्रथम पदा.
का दर्शन होता है पोछेसे भान होता है परन्तु मुक्त परमात्माको दर्शन और प्रान ए साथ ही प्रतिभासित होते हैं दोनोंका कार्य -सूर्य के प्रकाश और पनाप-समान एक साथ होता है। जान
और दर्शन ये दोनों नक्ति भिन्न भिन्न है । शान दर्शन नहीं है और दर्शन ज्ञान नहीं है। बानका कार्य भिन्न २हैं और दर्शनका कार्य मिन्न है।मान और दर्शन ये दोनोंही मात्माके पृथक् पृथक गुण है। दर्शनावरण कर्म आत्माके इस दृष्टागुणका आवरण करता है। घात करता है।
दर्शनावरण कर्मका नीन मध्यम आवरण सबको होता है। दर्शनावरण फर्मका उदय सघ संसारी जीवोंको होता है, यदि दर्शनावरणफर्मका क्षयोपशम नहीं हो तो पदार्थका दर्शन कदापि नहीं हो सके। और विना पदार्थ दर्शनके पदार्थका परिमान भी किसी अवस्थामें किसीको नहीं हो सके इसलिये पदार्थ-परिशानकेलिये दर्शनावरणकर्मका क्षयोपशम होना आवश्यक है।
एक मनुष्यके नेत्र होनेपर यदि दर्शनावरण कर्मका क्षयोपशम नहीं है तो पदार्थका परिझान नेत्र इन्द्रियके द्वारा सर्वथा नहीं होता है । और जो दशनावरण कर्मका भयोपशम है तो नेत्रके बिना ही पदार्थका परिमान कचित हो जाता है इसलिये दर्शनावरणका' क्षयोपशम पदार्थपरिज्ञानके लिये बाभ्यन्तर कारण है, आभ्यन्तर कारण उपस्थित होनेपर कार्य आवश्यंभावी है। . .