________________
१६ ]
जीव और कर्म विचार ।
कार्मण शरीर ( कर्मपिंड जो सूक्ष्मरूपले आत्माके साथ संबंधित है) आत्माको जबरन खींचकर ले जाता है। जिस प्रकार वेतार का तार आकर्षण किये हुए पुद्गल शब्द-वगणाओं को यथेष्ठ स्थान पर पहुंचा देता है, ठीक इसी प्रकार जीवको फार्मण शरीर दुसरे नवीन शरीरमें घर देता है।
एक शरीर छूटने पर ( मरने पर ) जोव कर्मरहित नहीं होता है। तु जीवने अपने कर्तव्योंके द्वारा जो पुण्य-पाप किया है तनुमार असंख्य कर्मोंको ( जो अत्यत सूक्ष्म है ) धारण किये रहता है । वह असंख्य कर्मोंका पिंड ही जीवोंको नवीन शरीर धारण करनेका कारण होता है ।
ससारी जीव अपने मन चचन काय द्वारा जो शुभाशुभ कर्म करते है । पुण्य और पापके आचरण करते हैं वे कर्म अपना फल प्रदान करने के लिये जीवको भले-बुरे शरीर में ले जाकर पटक देते हैं | यदि जीव अपने मन-वचन-काय द्वारा पाप, हिंसा, चोरी अन्याय, परधनहरण, परस्त्री हरण आदि मलिनाचरण करता हतो जीवको विवश होकर उन धर्मोका फल भोगने के लिये नरकादि दुर्गतिमें जाना पडता है। यदि जीवने अपने मन-वचन-काय द्वारा दान, पूजा, संयम, तप, भक्ति, दया आदि उत्तम कार्य किये हैं तो उसका फल भोगनेके लिये देवगति आदि उत्तम गति में जाना पडता है। परंतु जिस समय जीव ध्यान और उग्र तीव्र - तपके द्वारा समस्त शुभाशुभ कार्योंको भस्मीभूत कर देता है । मन-वचन कायके समस्त व्यापारोको रोक कर नवीन कर्म-बंधन