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जीव और कर्म-विचार। समस्त जीवोंको भूख लगना चाहिये । इस प्रकार समस्त जीवोंकी. एकरूप क्रिया माननेसे समस्त व्यवहार लोप हो जायंगे।
यदि समस्त जीवोंमें परमात्मा तत्त्वरूपसे वास करता है छाया रूप नहीं? तो समस्त जीव ही परमात्मा कहे जायगे। समस्त जीवोंमें अधिकाश जीव चोरी व्यभिचार और अन्याय आदि पाप करते हैं तो वे समस्त पाप परमात्मा कृत माने जायंगे जो परमात्माके लिये दूषणास्पद है।।
जो समस्त जीवों में परमात्मा तत्त्व रूपसे रहता है तो परमा. त्माको जन्म-मरण आदि संसारकी समस्त उपाधि साननी पड़ेंगी क्योंकि समस्त संसारी जीवोंमें जन्म मरण आदि समस्त प्रकार. की उपाधि लग रही है और जो समस्त जीवात्मा है वह एक परमात्माका रूप माननेसे परमात्मामें जन्म मरणकी समस्त उपाधि अनिवार्य रूप माननी हो पड़ेगी।
कदाचित् ऐसा माना जाय कि समस्त जीवोंमें एक परमा. त्मा ही है जीव पदार्थ कोई अन्य नहीं है मायासे भ्रांति रूप ऐसा ज्ञान हो रहा है। परंतु मायासे इस प्रकारके ज्ञानको सत्य माने या मिथ्या ( असत्य )? जो भ्राति रूप ज्ञान ( जो मायासे परमा. त्माका रूप जीवात्मा रूप दीखरहा हैं ) सत्य है तो सत्यज्ञानको भ्रांति रूप किस प्रकार कह सके हैं। संशय या अनध्यवसाय रूप ज्ञानमें ही भ्रांति होती है सो सत्यज्ञानको भ्राति रूप माने तो वह संशयात्मक होनेसे प्रामाणिक रूप नहीं होगा। दूसरे अनेक विरुद्ध कोटिमें रहने वाले अनिश्चयात्मक