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________________ जीव और कर्म विचार । [ ov ज्ञानको संशयज्ञान कहने तो यहां पर परमात्मा और जीवात्मामें गवयात्मक ज्ञान नहीं है इसलिये सशय नहीं कह सक है ? न सन्ध्यवसाय ही कह सकेंगे क्योंकि अनध्यवसाय धानको एक प्रकार से अज्ञान कहते है। जो भ्राति रूप ज्ञान सत्य प्रमाणित हो रहा है उसको भमान किस प्रकार कहे हैं । जो संसारी समस्त जीवोंमें मायासे परमात्मा दीख रहा है वह मिध्या है । तो संसारी जीवोंमें परमात्मा मानना भी मिथ्या ही टहरा । यदि मात्रा ब्रह्मले भिन्न है तब तो हैत सिद्धि हो जाती हैं और यदि माया उसने अभिन्न है तो वह मिथ्या नही किंतु वास्तविक सिद्ध हो जाती है। "एकमेव पर नेह नानास्ति किचन" ऐसा सिद्धांत युक्ति और प्रमाणसे ग्रान्य होने पर स्वीकार कर लिया जाय तो पाप-पुण्य जप-तप आदि समस्त उत्कृष्ट सदाचरण व्यर्थ होंगे। धर्म सेवन करना भी निष्काम होगा, दीक्षा धारण करना भी निष्फल होगा। क्योंकि समस्त जीव एक परमात्मा है तब दीक्षा धारण करना या जप तप आदि पुण्य कार्य करने की क्या आवश्यकता ? तथा मोक्ष और संसारका भेद उठ जायगा । बंघ और कारण मोक्ष और मोक्षकारण मानना व्यर्थ हो जायगा । तथा परमात्माको समस्त जीवात्मामें मानने से परमात्माकी स्थिति टहर नहीं सकी है इस प्रकार परमात्माको ही जीवात्मा मानने से अनेक दूषण प्राप्त होंगे ? एक बात यह भी है कि समस्त जीवात्माओं में परमात्मा एक
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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