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जीव और कर्म- विचार
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चाहे रक हो । चाहे दोन चाहे समर्थ हो । चाहे बलवान हो । चाहे विद्वान् हो । चाहे मूर्ख हो अज्ञानी हो । चाहे धनवान हो । चाहे गरीब हो, चाहे चींटी जैमा अत्यंत क्षुद्र जंतु हो- निगोदिया जैसा स्वल्पतम क्षुद्र जंतु हो । चाहे पृथ्वीकाय हो । चाहे वायुकाय या वनस्पतिकाय हो । चाहे हाथी हो किसी प्रकारका प्राणी क्यों न हो परंतु अपने कृत कर्मो का फल सबको भोगना ही पडेगा । जो यलवान मनुष्य अपनी स्वार्थसिद्धिसे अन्या वनकर दूसरे असमर्थ दीन और क्षुद्रजंतुओं को सताता है उसका फल उसको अवश्य ही भोगना पडेगा । अरे! अपने मनमें भी किसी दीन 1 प्राणीको कष्ट पहुंचानेका इरादा किया जाय, किसीकी हानिका विचार मात्र किया जाय, किसी ज वको नाश करनेकी भावना की जाय या मलिनावरण व्यभिचार (विधवाविाह आदिके द्वारा) करनेका मनमें सकल्प या विचार किया जाय तो भी उसका भयंकर फल भोगना ही पडेगा । अवश्यही भोगना पड़ेगा । कृत कर्मों का फल भोगे बिना कर्मों की निर्जरा होती है ।
जीव कर्म और कर्मफल की श्रद्धा करनेवाले भव्यजीव के आचरण व्यापार और दैनिक चर्या परम विशुद्ध और परम पवित्र ' होती है । वह विचारता है कि मेरे किसी भी कर्तव्यसे किसीजीवको कष्ट न हो, मलिन पदार्थ के भक्षणसे मेरी बुद्धि भ्रष्ट न हो, मलिन रज वीर्य से मेरी संतानका पिंड (शरीर) मलिन न हो, मलिन स्पर्शास्पर्शसे मेरी मति गति मलिन न हो, मेरे व्यापारमे, अनीति और अन्याय न हो, मेरे धनका समागम जोर-जुल्म पूर्वक