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________________ जोर मोर धर्म-विचार [४७ - - - भावार्य-वाहे संसारका भले ही नाश हो और उस नाम करने में अन्यान्य अत्याचार और लय प्रचार जुल्म करने पड़े, सिा भूल चोरी पापाना बयनिवार आदि मलिनावरण करने पड़े तो मी उनी उरा भी परवाह न घरके सरनी मोजमजा मस्न रह कर सुखी रहना चाहिये, पापरे भयले मोजमजा भोग. लिस जग भी विन्न नहीं डालना चाहिये क्योंकि मरन्चे बाद याप और पुपरत पल किसको मिलेगा। जर जीव-पदार्थ और पर्माल्को माना जाय तो पापकमासे निवृत्ति नहीं होती है। मनमें ग्लानि नहीं होती है । पापोंने मय नहीं होता है। लो जीव-पदार्य और पुण्य-पाप मानता है वही पार-धों से यवनेचा प्रयत्न करना है। समम्न जादोती च्या पालन करता है, इद और दीन प्राणियोंको मो अपना वधु मानता है, उनके साथ निष्कपट भावले सदाचारका व्यवहार करता है। सबकी रक्षा करता है। अन्याय करने में भयभीत होता है किसी भी प्राणी पर सत्याचार करनेकी उसकी भावना नहीं होती है। वह अन्य प्रापियों पर जुल्म करनेने हदयसे पिन होना है। हिंसा-झुठ-पापावरण चोग-व्यभिचार यार दुर्व्यसनोंसे किसी नीरको भी नहीं सदाना चाहता है। _वह विचार करना है कि जो मैं अपनी स्वार्थसिद्धिके लिये सत्य जीदारे साथ अन्याय पतंगा तो मुझे उसका फल इस -लोपः तया परोको आवश्य ही भोगना पडेगा। हत-कर्मोदा फरत अवश्य ही सबको नियमले प्राप्त होता है। वाहे राजा हो।
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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