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' अव और कर्म-विखार ।
शुभाशुभ- पदार्थोके सेवन करने योग्य भावोंमें रति होना सो भावरतिकर्म है ।
इस प्रकार रतिकर्म प्रेमभावको उत्पन्न करता है परन्तु दर्शन मोहनकर्मके समान पर पदार्थ में स्वात्म वृद्धि नहीं करता है। या भनंतानुमन्धी लोभकपायके समान संश्लेषरूप रागभाव नहीं होता है । अन्य पदार्थको अपनाना उसको आत्मरूप जानकर तन्मय होना ऐसा रागभाव रतिकर्मसे नहीं होता है वह कपायभाव या दर्शनमोहनी से विपरीतभाव होकर होता है ।
अरतिकर्म-जिसके उदयसे जीवोंको द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव आदिके द्वारा पदार्थोंमें भरतिभाव द्वे प्रभाव हो सो भरतिकर्म है ।
चिप शत्रु आदिमें द्वेष होना द्रव्यभरतिकर्म है । श्मशानभूमिआदि मलिन भूमिमें भरतिभाव होना सो क्षेत्रभरतिकर्म है। शीत या उष्णकालमें द्वेष होना सो कालभरतिकर्म है। तप ध्यानअध्ययन आदिके भावोंमें अति होना सो भाव भरतिकर्म हैं । शोककर्म - जिस कर्म के उदयसे जीवोंको शोक के परिणाम हों वह शोक है।
भयसंज्ञा - जिस कर्म के उदयसे जीवोंको भय होपरिणाम हों वह भयसंज्ञा है ।
'जुगुप्सा - जिसकर्मके उदयसे जीवोंको किसी पदार्थसे ग्लानि घृणा उत्पन्न हो वह जुगुप्सा अपाय -वारिश्रमोहनीकर्म है ।
स्त्रीवेद - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको परुषके साथ रमण करनेकी आकांक्षा हो यह स्त्रीवेद है
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