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जीव और कर्म - विचार |
यदि जीवकी क्षण-क्षणमें नवीन उत्पत्ति मान ली जाय तो प्रत्यभिज्ञानका सर्वथा लोप मानना पडेगा । प्रत्येक मनुष्यको प्रत्यभिज्ञान होता है जिससे संसार के समस्त व्यवहार निरंतर होते हैं वे सर्व नष्ट हो जायेंगे । प्रत्यभिज्ञानका स्वरूप शास्त्रों में यह बतलाया है कि- पूर्वमें अनुभवित किये हुए पदार्थका स्मरण और वर्तमान समयका जोड़ रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं ।एक सेठने एक मनुष्यको एक लाख रुपया उधार (ऋण) दिये तो वे रुपया किससे वसूल किये जांय ? क्योंकि जिसने रुपया ऋण लिये हैं बह जीव ही नहीं रहा और नवीन जीव ओ गया क्योंकि क्षण क्षण में नवीन जीवकी उत्पत्ति माननेसे लेने वाला नष्ट होगया और दूसरा जीव आ गया इस प्रकार प्रत्यभिज्ञानका अभाव होनेसे सर्व व्यवहार नष्ट हो जायेगा ।
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जीवको क्षणस्थायी मान लेवें तो कर्मफलका मानना सर्वथा सिद्ध नहीं होगा। क्योंकि एक जीवने हिंसा की उस हिंसाका फल उस जीवको इस लोक और परलोक में कैसे प्राप्त होगा ! क्योंकि हिसा करनेवाला जीवको क्षणस्थायी मानने से वह नष्ट होगया तो हिंसाका फल भोगनेवाला कौन होगा ! अन्य जीव भोगेगा ऐसा मानें तो नवीन निरपराधी जीवको फल भोगना पढ़ेगा और आपराध करने वाले जीवको अपराधका फल नहीं मिलेगा ? तो यह न्याय संगत नहीं हो सका है ।
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जीवको क्षणिक माननेसे खान-पान करनेवाला जीवको खानपानका स्वाद नहीं हो सक्ता है, क्योंकि खान-पान करनेवाला जीव
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